Thursday, March 20, 2008

वक्‍त कम कैसे हो गया

होली आ गई। एक पोल में अभी तक 41 फीसदी लोगों ने माना है कि होली के उत्‍साह में कमी आ गई। हाँ, वक्‍त और समय नहीं है किसी के पास... लोग बाग यहीं दलील देते हैं। मुझे तो समझ में नहीं आता भईया। पहले भी 24 घंटे ही होते होंगे ना। या दो-चार घंटे और होते थे। मुझे जो बताया गया है, उसके हिसाब से हमेशा से 24 घंटे ही रहे हैं। फिर वक्‍त कम कैसे हो गया ?

अजमेर में नौकरी करने के दौरान मनोविज्ञानी और समाजशास्‍‍त्री उमा जोशी अक्‍सर अपनी बातों से मुझे प्रभावित करती थीं। वो हमेशा बजटिंग ऑफ टाइम पर जोर देती थीं। कहती थीं कुछ लोगों के पास घंटे अधिक होते हैं, क्‍‍योंकि उन्‍‍हें समय का ठीक उपयोग आता है।

आमतौर पर लोग अपनी जरूरतों को बजटिंग ऑफ टाइम का हिस्‍‍सा नहीं मानते हैं, जिससे उन्हें ऑफिस और अपने व्यक्तिगत काम के बीच तालमेल बिठाने में श्‍ मुश्‍किल आती है। उमा जी का कहना था कि यदि हम अपनी जरूरतों और गैर जरूरी कामों का बँटवारा कर लें तो हमारे पास भी दो-चार घंटे ज्यादा होंगे।

उमा जोशी का जीवन के प्रति दृष्‍टिकोण बहुत ही सकारात्मक है। एक बार फैशन में बदलाव के सिलसिले में उनका मत जानने के लिए फोन लगाया। उन्होंने कहा कि बदलते ट्रेंड के साथ चलन में आने वाले पहनावे को जो लड़कियाँ अडाप्ट कर लेती हैं, वो बदलाव के लिए हमेशा तैयार होती हैं। इससे उन्हें आगे के जीवन में बहुत मुश्किलों से निपटने में आसानी रहता है।

उमाजी की बात ने मुझ पर गहरा असर डाला। तात्कालिक तौर पर जो स्टोरी निगेटिव भी वो फैशन के पॉजिटिव आस्पेक्ट में लिखी गई। उनकी इन दोनों बातों में मुझे जावन के उजले पक्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा दी।

Thursday, February 28, 2008

बिहारियों ने आपका क्‍या बिगाड़ा है भाई


रेल बजट पेश हुआ और मेरे सहयोगियों और मित्रों ने अपेक्षित आपत्ति दर्ज की। मैं उनकी आपत्ति के प्रति भी सद्भाव रखता हूँ। लेकिन आपत्ति करने के तरीके से मुझे आपत्ति है। आपत्ति यह की बिहार में ज्‍यादा ट्रेन क्‍यूँ है?

किसी भी आलोचना में ये बात हजम नहीं हो पाती है। आप ये कहें कि मेरे वहाँ सुविधाएँ क्‍यों नहीं है तो सही लगता। जहाँ तक बिहार की बात है, झारखंड बनने के बाद वहाँ विकास के रास्‍ते बंद हो गए। साथ ही हर साल आने वाली बाढ़ की विभिषिक उसे हर बार दो साल पीछे ढकेल देती है।

अब तो उनके मजदूरी से रोजगार के निवाले भी छिने जा रहे हैं। पहले ये कार्यक्रम असम में चालू था, अब महाराष्‍ट्र में जारी है। माँ भी अपने सबसे कमजोर बच्‍चे का ख्‍याल करती है, तो बिहार के बारे में कोई भी कार्यक्रम बनाए जाने पर आपत्ति क्‍यों होती है।
करीब चार-पाँच साल पहले बिहार गया था। पहली मर्तबा बिहार का प्रवास था। वो भी हाजीपुर से टाटानगर तक जाना था। बिहार में रहना भी नहीं था, लेकिन पूरे समय अनजाना-सा भय भीतर से ही काट रहा था। मजेदार बात हुई कि टाटानगर से वापस लौटने पर पटना से हाजीपुर आकर कनेक्‍टिंग ट्रेन पकड़नी थी। सोचकर ही पांव फूल रहे थे। बिहार न हुआ, तालिबान में हों।

खैर, पटना पहुँचा। इससे पहले मेरे सहयात्री मेरी बेचैनी देखकर मुझे पटना से हाजीपुर तक कैसे जाना है- बता रहे थे। स्‍टेशन पहुँचने पर तो एक सज्‍जन ने बकायदा एक कार में भी बिठा दिया। बिहार के बारे में जैसा सुना था, मारे डर के उस सज्‍जन के जाने के बाद गाड़ी से उतर गया और लगा कि किसी गैंग का आदमी न हो। (उक्‍त सज्‍जन झमा करें।)

आधे घंटे इधर उधर भटकने के बाद वापस दूसरी गाड़ी में बैठ गया। ठसाठस भरी कार में अपनी ओर से पूरी बिहारी बनने और उन जैसा बोलने की कोशिश भी की, ताकि कोई भी अप्रत्‍याशित हादसा न हो। आधे घंटे बाद हम हाजीपुर पहुँच गए और अगली सुबह मैं अपने घर था। इसके बाद कई बार बिहार जाना हुआ। डर खत्‍म हो गया।

ऊपर लिखे मेरे इस संस्‍मरण का आशय केवल यह है कि बिहार पिछड़ा जरूर है, असभ्‍य नहीं है। वहाँ के लोग मेहनती हैं और अपने पसीने की नहीं बल्‍कि खून से सनी रोटी खाते हैं। इसके लिए उन्‍हें ‘बिहारी’ होने की गाली सुननी पड़ती है।
पिछले कुछ साल से अपनी नौकरी के दौरान मैंने देश के कुछ हिस्‍से में बिताए, जहाँ यह जानकर बहुत दु:ख हुआ कि लोगों में बिहार के बारे में लेकर कितना मिथ है। वहाँ जैसी सड़कें तो महाराष्ट्र और मध्‍यप्रदेश में भी हैं। क्राइम तो आंध्र में क्‍या कम है? राजस्‍थान, पंजाब में तो बेटी पैदा होने पर उनके मुंह पर बालू की पोटली रखकर मार दिया जाता है। इंदौर के अखबारों में कई बार यह छपते देखा है कि स्‍थिति बिहार जैसी हो गयी है। हंसी आती है। न जाने क्‍यों उन्‍हें शर्म नहीं आती- देश में सबसे बड़ी क्रिमिनल एक्‍टिविटी वाला सिटी बनने पर भी दूसरे की तुलना करते हैं। वो तो खुद ही उदाहरणीय हैं।

तो भी अपराध और पिछड़ेपन का तमगा अकेले बिहार पर क्‍यों? बिहार और बिहारियों के खिलाफ इतना भेदभाव क्‍यों?

Wednesday, February 20, 2008

साथ बुढ़ी होने की कसम

प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति निराली है। प्रेम करना तो आसान है लेकिन इसे बयाँ करने में अच्‍छे-अच्‍छे सूरमाओं के पसीने छूट जाते हैं। जो बोल नहीं पाते वो ख़त लिखते हैं। कुछ तो सिर्फ आगे-पीछे डोलते रहते हैं। वैसे ऐसा भी माना जाता है कि है प्‍यार आँखों की भाषा है। इसे लब्‍जों में ढालने की जरूरत नहीं होती है, लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है और प्रेमी-प्रेमिकाओं में इस बात की साध होती है कि उन्‍हें भी ‘कोई’ इजहार-ए-मुहब्‍बत करता। लाजिमी है, अच्‍छा सुनना सभी को अच्‍छा लगता है। लेकिन इजहार करने वालों की धुकधुकी उस समय बंद हो जाती है, जब इजहार ही अंतिम रास्‍ता हो। ये ज्‍यादातर तब होता है, जब कबाब में हड्डी यानी कोई दूसरा भी कतार में खड़ा हो। खैर, हम अपनी बात पर आते हैं। बात उन दिनों की है, जब मैं स्‍कूल की पढ़ाई पूरी कर कॉलेज में गया था। को-एजुकेशन में पढ़ाई करने के कारण साथ में लड़कियों और लड़कों का रेला था।

कुछ लड़के, लड़कियों को लुभाने के लिए तमाम जतन करते। मसलन, नई रिलीज हुई फिल्‍म के हीरो की तरह कपड़ा पहनना, फुटपाथ से हीरो जैसा 25 रुपए वाला चश्‍मा लगाना और बार-बार उसे स्‍टाइल से पॉकेट में रखना, वगैरह-वगैरह। लेकिन प्‍यार के दो बोल उनकी हलक में ही अटक जाते थे।

हमारे साथ ही विनोद भाई भी पढ़ा करते थे। ‘भाई’ इसलिए कि वो हम सबसे उम्र में काफी बड़े थे। तो विनोद भाई का दिल आ गया, साथ ही पढ़ाई करने वाली शुभांगी पर। नाम के अनुरूप ही शुभांगी खूबसूरत थी और उसे इस बात का नाज भी था। वैसे उसे चाहने वालों में विनोद भाई अकेले नहीं थे। कतार लंबी थी। इस बात से वो भी वाकिफ थे। सो सभी को बता दिया कि शुभांगी उनकी ‘अमानत’ है। किसी के दिल में कोई भी बुरा ख्‍याल हो तो उसे बाहर निकाल दे। इसके लिए विनोद ‘भाईगिरी’ भी कर सकते थे। लेकिन उन्‍होंने सोचा की इससे शुभांगी पर गलत इंप्रेशन पड़ेगा। उम्र और शरीर सौष्‍ठव से पहले भी पूरा कॉलेज डरता था और कहीं उन्‍होंने बाहर वाले कैंटीन में बुला लिया तो सामने वाले की बैंड बजा देते।

वैसे अभी विनोद भाई का बैंड बजने की बारी थी। स्‍कूल में शुभांगी के चाहने वालों पर उनकी भाईगिरी खास असर नहीं डाल पा रही थी। उनके डर से इजहार तक बात तो नहीं पहुँच पाती थी, लेकिन आँखों के इशारे तो कई कर रहे थे। इधर शुभांगी मैडम को भी यह सबकुछ अच्‍छा लग रहा था। प्‍यार की साध भी बड़ी निराली होती है। इजहार करो तो बेशर्म, लुच्चा, लफंगा और नहीं करो तो भोंदू। उसकी हर नाजो-अदा पर पूरा कैंपस मिटने को तैयार था, लेकिन विनोद भाई का ध्‍यान आते ही ख्‍याल मन से निकाल देता। विनोद भाई ने भी शुभांगी के अपने प्रति सॉफ्ट कॉर्नर के बारे में सबको बता रखा था। इसे बताने के पीछे दो कारण थे - पहला, हर चाहने वाला अपने मन से शुभांगी का ख्‍याल निकाल दे और दूसरा, ‘शुभांगी का भाई के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर’, इसलिए कि कहीं इजहार का नकार मिला तो भी इज्‍जत का फालूदा न बने।इधर वक्‍त गुजर रहा था और सबकुछ विनोद भाई के हाथ से फिसल रहा था। साथ के लड़कों से इजहार करने के कई tariikeपूछे। तरीके भी तमाम मिले- किसी ने फूल के साथ गुलाबी रंग के लेटर पैड पर सेंट छिड़कर प्रेम-पत्र लिखने की सलाह दी तो किसी ने ‘बोल दे खुल्‍लम खुल्‍ला’ स्‍टाइल अपनाने को कहा। किसी ने सड़क पर मोटे-मोटे अक्षरों में बड़े से तीर वाले दिल के बीच अपना और उसका नाम लिखने की सलाह दी।

बहरहाल, चूँकि ‘भाई’ उम्र में भी बड़े थे, तो उन्‍होंने बिना कुछ कहे बस मन में ठान लिया किया कि अगले दिन इजहार-ए-मोहब्‍बत करेंगे। फुटपाथ से तमाम सजने-सँवरने के सामान और एसेसरीज खरीदी, साथ ही शेरो-ओ-शायरी वाली किताब भी। ताकि इजहार में वजन आ सके और बात गहरा असर भी करे। रात करवट बदलते हुए बीती। शुभांगी से बात करने का होमवर्क भी इस बीच कर लिया। कपड़े वगैरह की सारी तैयारी रात में कर ली। घबराहट के मारे सुबह नींद भी जल्‍दी खुल गई। अब करने के लिए भी कुछ नहीं बचा था। घबराहट ऐसी की सारे ‘जरूरी’ काम दो-दो बार कर लिए। सुबह हुई। कॉलेज पहुँचे। शुभांगी दिखी। इधर धुकधुकी भी बढ़ी। भारी कदम और रात के होमवर्क को याद करते हुए ‘भाई’ पास पहुँचे। उनकी दी हिदायत के मुताबिक उस वक्‍त वहाँ कोई नहीं था। भाई और शुभांगी के बीच क्‍या-क्‍या बातें हुईं, बता नहीं सकता, लेकिन इसके बाद विनोद भाई काफी गंभीर हो गए। शुभांगी के हाव-भाव में काफी बदलाव आ गया और हमारी बैचेनी भी बढ़ने लगी। क्‍या शुभांगी भाई से डर गई, क्‍या भाई को उसने दुत्‍कार दिया ?... इधर भाई से इस सिलसिले में पूछने की किसी में हिम्‍मत नहीं हुई, उधर शुभांगी से बाकी लोगों ने भाई को मिले संभावित जवाब की आशंका में दूरी बना ली। भाई बड़े होने के बाद भी हम लोगों से काफी हिले मिले थे। काफी दिनों बाद एक दिन उनका मिजाज देखकर उनके इस गंभीर रवैए के बारे में जानने के लिए उन्‍हें कुरेदना शुरू किया। पहले तो भाई ने टाल दिया और उनकी मुस्‍कुराहट देखकर बात बढ़ाने का साहस भी होता गया। काफी कुरेदने के बाद उन्‍होंने बताया कि उस दिन शुभांगी से उन्‍होंने कहा था कि ‘क्‍या आप मेरे साथ बूढ़ा होना पसंद करेंगी’। इस पर शुभांगी ने उनके इजहार करने के तरीके की सराहना की और आँखों से हामी का संकेत देकर चली गई।