Wednesday, February 3, 2010

पराई याद


एक
दो
चार...
नहीं हजार बार
उन चुनिंदा शब्दों को
समेटा मैंने।

सहेजा
इधर से उधर
उधर से इधर

लेकिन
अब नहीं उभरते हैं
तुम्हारे नाम।

तुम्हारे लिए भावनाएं
बचाकर रखी थीं,

न जाने कहां
गुम हो गईं।

अब याद भी
पराई-सी लगती है
तुम्हारी।

विश्राम है, विराम नहीं
















विराम दिया था
इतने दिन तक
तुमको, साथी मेरे

अंतस में तुम जगह बनाकर
लेटे थे

आज उभारों को मैनें
महसूस किया है
दो-चार स्याह, जो
मिलकर साथ
इधर गुजरे

मन नाचा मेरा
जान, हुआ पुलकित
विश्राम अभी है ये
विराम नहीं।