Monday, September 13, 2010

एक सौ सोलह चाँद की रातें और एक अकेला काँधे का तिल।

मैं खुद पेशोपेश में रहता हूँ, गुलजार को लेकर। यह उलझन इक बारगी तो बयाँ करती है एक कवि के शब्‍दों की ताकत को, जहाँ अर्थोँ की बहुलता है, वह पुकारता भी है, पुचकारता भी, दुलारता भी और लतारता भी, समाज को बदलने की बहुत प्‍यारी सी लतार– चप्‍पा चप्‍पा चरखा चले… मैं जब से गीत के बोल समझने लगा, जब से यह पता चला कि सनिमा के गीत में कोई भाषा, कुछ अर्थ होते हैं, तब से गुलजार का मुरीद बन गया।

दरभंगा जैसे छोटे शहर, अस्‍सी का गुजरता दशक, मध्‍यवर्गीय शिक्षक का पारिवारिक माहौल, पढ़ने लिखने की चाहत, लड़कियों को चुपके से देखने और फिर उनके छाते की रँगों या कान के झुमके को सोचते हुए खुद में ही खुश होते मैं और मेरे चंद दोस्‍त। शेखर और भुवन में अपने को तलाशते, पिताजी के कार्ड पर लनामिवि विश्‍वविधालय पुस्‍तकालय से ए ए बेल संपादित फ्रायड के लेखन से उत्‍साहित हमलोग दिन गुजार देते, गुलजार के बोलों पर– एक सौ सोलह चाँद की रातें और एक अकेला काँधे का तिल।

सँख्‍या के गणित में एक अनोखी, अबुझ अलसाया सा रहस्‍य हमेशा शेष रह जाता था, भोर के सपने की तरह। तिल है तो मधुबाला की तरह ओठों के नीचे क्‍यो नहीं, चाँद तो फिर एक सौ सोलह क्‍यों? गुलजार के यहाँ सब कुछ समेटने की जिद नहीं थी, जो बचा-खुचा छुटा रह जाता है उसके चौखट पर ठहर कर समय गुजारने की, उसके साये से लिपट कर समय को खो देने की कशिश है। एक ठहरेपन की आवारगी। तो ऐसे में टीस कहाँ से आता है?


'लेकिन' में टूटी हुई चुड़ियोँ से कलाईयाँ जोड़ी जाती है तो 'इजाजत' ली जाती है सावन के भीगे भीगे दिनों को लौटा देने की। ये यादें हैं बीते हुए अहसासों की रवायतें जो मीठा मीठा दर्द देती हैं। लेकिन टीस तो कुछ अलग हुआ, है ना?
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साभारः vatsanurag.blogspot.com