Wednesday, July 18, 2012

सपने


Related image

ताख पर तुमने सपने रखे हैं
उन्हें उतार लेना
उनमें धूल की परतें जमी हैं
साफ़ कर देना
हाँ, ये याद रखना
कई उम्मीदों की बाती पड़ी है
उन परतों के नीचे
हो सके तो सहेज लेना

Monday, September 13, 2010

एक सौ सोलह चाँद की रातें और एक अकेला काँधे का तिल।

मैं खुद पेशोपेश में रहता हूँ, गुलजार को लेकर। यह उलझन इक बारगी तो बयाँ करती है एक कवि के शब्‍दों की ताकत को, जहाँ अर्थोँ की बहुलता है, वह पुकारता भी है, पुचकारता भी, दुलारता भी और लतारता भी, समाज को बदलने की बहुत प्‍यारी सी लतार– चप्‍पा चप्‍पा चरखा चले… मैं जब से गीत के बोल समझने लगा, जब से यह पता चला कि सनिमा के गीत में कोई भाषा, कुछ अर्थ होते हैं, तब से गुलजार का मुरीद बन गया।

दरभंगा जैसे छोटे शहर, अस्‍सी का गुजरता दशक, मध्‍यवर्गीय शिक्षक का पारिवारिक माहौल, पढ़ने लिखने की चाहत, लड़कियों को चुपके से देखने और फिर उनके छाते की रँगों या कान के झुमके को सोचते हुए खुद में ही खुश होते मैं और मेरे चंद दोस्‍त। शेखर और भुवन में अपने को तलाशते, पिताजी के कार्ड पर लनामिवि विश्‍वविधालय पुस्‍तकालय से ए ए बेल संपादित फ्रायड के लेखन से उत्‍साहित हमलोग दिन गुजार देते, गुलजार के बोलों पर– एक सौ सोलह चाँद की रातें और एक अकेला काँधे का तिल।

सँख्‍या के गणित में एक अनोखी, अबुझ अलसाया सा रहस्‍य हमेशा शेष रह जाता था, भोर के सपने की तरह। तिल है तो मधुबाला की तरह ओठों के नीचे क्‍यो नहीं, चाँद तो फिर एक सौ सोलह क्‍यों? गुलजार के यहाँ सब कुछ समेटने की जिद नहीं थी, जो बचा-खुचा छुटा रह जाता है उसके चौखट पर ठहर कर समय गुजारने की, उसके साये से लिपट कर समय को खो देने की कशिश है। एक ठहरेपन की आवारगी। तो ऐसे में टीस कहाँ से आता है?


'लेकिन' में टूटी हुई चुड़ियोँ से कलाईयाँ जोड़ी जाती है तो 'इजाजत' ली जाती है सावन के भीगे भीगे दिनों को लौटा देने की। ये यादें हैं बीते हुए अहसासों की रवायतें जो मीठा मीठा दर्द देती हैं। लेकिन टीस तो कुछ अलग हुआ, है ना?
-----------------
साभारः vatsanurag.blogspot.com

Wednesday, February 3, 2010

पराई याद


एक
दो
चार...
नहीं हजार बार
उन चुनिंदा शब्दों को
समेटा मैंने।

सहेजा
इधर से उधर
उधर से इधर

लेकिन
अब नहीं उभरते हैं
तुम्हारे नाम।

तुम्हारे लिए भावनाएं
बचाकर रखी थीं,

न जाने कहां
गुम हो गईं।

अब याद भी
पराई-सी लगती है
तुम्हारी।

विश्राम है, विराम नहीं
















विराम दिया था
इतने दिन तक
तुमको, साथी मेरे

अंतस में तुम जगह बनाकर
लेटे थे

आज उभारों को मैनें
महसूस किया है
दो-चार स्याह, जो
मिलकर साथ
इधर गुजरे

मन नाचा मेरा
जान, हुआ पुलकित
विश्राम अभी है ये
विराम नहीं।

Saturday, September 26, 2009

वो आखिरी चिट्ठी


वो आखिरी चिट्ठी भी सिराहने रख दी
तुमसे कहने वाली ढेर सारी बातें दबाकर।
कभी खूंटी पर रखी पुरानी यादों को खोलना
बीते लम्हों के पत्ते आज भी हरे मिलेंगे।

चढ़ती-उतरती सीढ़ियों पर
वो परछाइयां आज भी चिपकी हैं।
पीछे से उठती हवाओं से पूछना
उसकी किताबों में वो दो फूल ताजा हैं।

वक्त के झोंके धुल नहीं पाएं है
कभी गर्मी, कभी सर्दी बनकर सताते है।
वक्त बेवक्त आते मानसून में
बूंदों की सौंधी खूशबू आज भी जिंदा है।

वो जो चारमीनार के नीचे मोती खरीदे थे
उनका रंग पीला तो नहीं हुआ
हां उसकी लड़ियां जो तुमने गुथीं थी
टूट गईं हैं, तुम आना तो फिर गुथ देना।

Sunday, September 6, 2009

महिला अपराध से बड़े शहरों का मुँह काला

बड़े शहरों के बारे में यह आम धारणा रहती है कि वहाँ सब कुछ दूसरे शहरों और गाँवों से बेहतर होगा, लेकिन इस बात की भूल महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में नहीं करनी चाहिए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍योरों के पिछले साल के आँकड़ों पर नजर डालें तो अपराध की दर में पिछले दस साल में गिरावट आई है, लेकिन ये आँकड़े केवल दर्ज रिपोर्ट के आधार पर हैं।

2006 में शरीर से संबंधित अपराध 22.9 प्रतिशत थे। वेश्‍यावृत्ति और इससे संबंधित मामलों के अंतर्गत दर्ज अपराध 0.1 फीसदी थे। यहाँ ‘फीसदी’ का दशमलव भी अपने आप में बड़ी कहानी कहता है। देश के शेष शहरों और बड़े शहरों में महिला अपराध भी ‘बड़े’ रहे। मात्र सात सालों में मेट्रोज में अपराध 10 फीसदी बढ़े।

बड़े शहर बनाम छोटे शहर-
2006 में परिवार और पति के अत्‍याचार के दर्ज मामलों में छोटे शहरों से 84.8 फीसदी मामले आए तो वहीं मेट्रो शहरों से अकेले 15.2 फीसदी मामले सामने आए। दूसरी ओर शारीरिक उत्‍पीड़न के मामले में भी हालात कमोबेश ऐसे ही थे। इस मामले में जहाँ कुल 82.2 फीसदी मामले में अन्‍य शहरों से आए तो 17.8 फीसदी मामले मेट्रो के थे।

छेड़खानी में तो ऐसा लगता है कि कोई तमगा मिलेगा। शहरों में 91.4 फीसदी मामलों के बदले में मेट्रोज ने 8.6 फीसदी मामले दर्ज कराए। वहीं दहेज हत्‍या के मामलों में कोई गिरावट के संकेत नहीं दिख रहे हैं। दहेज हत्‍या के कुल मामलों में से 91.6 फीसदी मामले शहरी इलाकों में और 8.4 फीसदी मामले मेट्रो में हुए।

अपहरण में भी मेट्रो ने 15.8 फीसदी का आँकडा़ तय किया। बलात्‍कार के कुल मामलों में शहरों में 91.2 फीसदी बलात्‍कार के मामले सामने आए, वहीं 8.8 फीसदी मामले मेट्रोज से थे। यहाँ यह बात गौर करने वाली है कि सभी मामले सामने नहीं आते और जो सामने आते भी हैं, उनमें से दर्ज भी कम ही होते हैं।

यहाँ एक बात और भी नोटिस करने वाली है कि भारत की आबादी 1 अरब 12 करोड़ है और इनमें से मेट्रो सिटी की आबादी दस करोड़ की है। अकेले 2006 में कुल हुए अपराधों की संख्‍या 1878293 थी, जिसमें से 326363 अपराध मेट्रोज में हुए। वैसे इससे यह नहीं कहा जा सकता कि बाकी शहरों में अपराध में गिरावट आई है। दरअसल मेट्रो शहरों में अपराध दर्ज हो जाते हैं, वहीं बाकी शहरों (खासकर छोटे और दूरदराज के) में अपराध दर्ज होने की संख्‍या कम है।

महिलाओं के प्रति अपराध में कोई गिरावट नहीं आई है। पिछले दस सालों में इसमें 45 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वहीं महिलाओं के प्रति अपराध की दर में भी 20 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। 1996 के लिहाज से इसमें 42.4 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, वहीं इसकी दर 18.5 फीसदी बढ़ गई है। अपराध का सबसे घिनौना पहलू है कि बच्‍चों के प्रति अपराध में मध्‍यप्रदेश 2006 में सबसे आगे था।

अपराध के खिलाफ मुखर हों

अपराधी तब तक अन्‍याय करता है, जब तक कि उसे सहा जाए। कुछ दिनों पहले अलग-अलग मामलों में कई आरोपियों को सजा सुनाई गई। दरअसल न्‍याय व्‍यवस्‍था में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। बल्‍कि इन वर्षों में अपराध को छुपाने और अपराधी से डरने की प्रवृत्ति खत्‍म होने लगी है। महिलाओं के प्रति अपराध में यह स्‍थिति अभी कम है। उन्‍हें इस बात को समझना होगा कि दुर्घटना व्‍यक्‍ति और वक्‍त का चुनाव नहीं करती है और यह सब कुछ होने में उनका कोई दोष नहीं है।

वैसे महिलाओं में इस धारणा को पैदा करने के लिए न्‍याय प्रणाली और मानसिकता में मौलिक बदलाव की भी जररूरत है। देश में अच्‍छी न्‍याय व्‍यवस्‍था के बावजूद महिलाओं के अधिकार ‘सीमित’ हैं। सीमित इस मायने में हैं कि 1. इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं है और 2. इसका पालन पूरी ऊर्जा और इच्‍छाशक्‍ति से नहीं होता है। महिला सशक्तीकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएँ अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं।

महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध के लिए चिंताजनक रूप से धीमे और गैरजिम्‍मेदाराना अन्वेषण, लंबी और बोझिल कर देने वाली पैरवी और देर से दिए गए निर्णय भी जिम्‍मेदार हैं, ये महिलाओं के न्‍याय पाने की इच्‍छाशक्‍ति को कमजोर कर देते हैं।

दरअसल भारत में रजिस्‍टर नहीं कराए गए मामले में यह बात भी सामने आई है। महिला अपराध से संबंधित मामलों में जल्‍द कार्रवाई और सुनवाई नहीं होने के कारण अपराधी को भागने और बचाव करने का मौका मिल जाता है। दूसरी ओर इन मामलों में देरी होने से पीड़ित महिला पर अनुचित दबाव डाला जाता है या प्रताड़ना होती है।

महिलाओं के विरुद्ध अपराध का एक पहलू समाज का नकारात्‍मक दृष्‍टिकोण भी है। अक्‍सर लोगों में धारणा होती है कि अपराध होने में महिला का भी दोष है या यह उनके उकसाने के कारण हुआ होगा। साथ ही छोटे से बड़े हर स्‍तर पर असमानता और भेदभाव के कारण इसमें गिरावट के चिन्ह कभी नहीं दिखे।

इसके लिए कानून को और प्रभावी बनाए जाने की बात भी बार-बार सामने आई है। पूर्व में महिला आयोग की अध्‍यक्ष रहीं पूर्णिमा आडवाणी ने भी इस संबंध में चिंता जाहिर की थी।

कहाँ है बदलाव की जरूरत :

- दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 के अंतर्गत कई राज्‍यों में दहेज प्रतिषेध अधिकारी भी नियुक्‍त नहीं हैं। हालाँकि अधिनियम में इस संबंध में बखूबी प्रावधान दिए गए हैं।
- इंमॉरल ट्रैफिकिंग एक्‍ट, 1986 के बावजूद वेश्‍यावृत्ति में कोई कमी नहीं आई है। इस अधिनियम की धारा 8 में महिला को ही आरोपी माना गया है, वहीं इसे संचालित करने वाले और दलाल अक्‍सर बच निकले में सफल हो जाते हैं।
- बंधुआ मजदूरी के खिलाफ कानून बनाए जाने के बाद भी इस पर पूरी तौर पर रोक नहीं लग सकी है।
- एकांतता के अधिकार में कमी आई है और इस संबंध में मीडिया का उत्‍तरदायित्‍व है।

यहाँ एक बात गौर करने वाली है कि महिला अपने संबंधों और पद के पहले एक महिला है, वो भी अपनी प्रतिष्ठा और अधिकारों के साथ। इस बात का ख्‍याल भारतीय कानून में बखूबी अंकित है। इस वजह से भी भारतीय न्‍याय तंत्र संवेदनशील भी माना जाता है। लेकिन सामाजिक जागरूकता की कमी और लोगों में दिन-ब-दिन घटते नैतिक पुरुषार्थ के कारण महिलाओं की स्‍थिति दोयम बनी हुई है। कानून में उन्‍हें प्रतिष्‍ठा और एकाधिकार के साथ जीने की गारंटी के साथ जीने के आश्‍वासन के बाद भी असल जिंदगी में इसका लोप दिखता है।

ऐसा नहीं हैं कि महिलाओं के प्रति होने वाले अत्‍याचार केवल भारत में होते हैं। सभी देश चाहे वो विकसित हों, विकासशील या फिर गरीब, महिलाओं की स्‍थित कमोबेश एक जैसी है। इसीलिए संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने इसके लिए कुछ गाइड लाइन तैयार की हैं और विश्‍व के सभी देशों से इसके पालन की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ब्‍योरों पर गौर करें तो नतीजा शिफर है। असल में कानून का पालन, कानून के होने से अधिक महत्‍वपूर्ण है।

आमतौर पर देखा जाता है कि अपराध का अन्वेषण पीड़ित की ओर फोकस रहता है, वहीं पैरवी आरोपी पर फोकस होती है। यहाँ भी बदलाव की जरूरत है। क्‍या अपराध के होने में पीड़िता का दोष है। दुर्घटना कभी भी और किसी के साथ हो सकती है।

हाल के दिनों में जेंडर जस्‍टिस की बात हवा में उछली। क्‍या यह सही न्‍याय देने में सक्षम होगा। वैसे पिछले साल यह भी देखने को मिला कि मुखर होने पर न्‍याय भी मिलता है और इज्‍जत भी। वैसे इन बातों की हर समाज, सभ्‍यता और परिवेश के लिए अलग-अलग धारणा है।

इसके अलावा हर समय काल में भी यह अलग तरीके से समझी गई। इस अवधारणा को भारतीय कानून में अधिगृहीत किया गया। लेकिन समय और अपराध की गंभीरता को समझते हुए इसमें बदलाव की जरूरत है। भारतीय कानून में जेंडर जस्‍टिस समता और प्रतिष्‍ठा के अधिकार के तहत मौलिक अधिकार में समाहित हैं, लेकिन त्‍वरित न्‍याय से ही इसको बल मिलेगा।

देश की तरक्‍की में साक्षर नारी का योगदान

भारत के विकास में महिला साक्षरता का बहुत बड़ा योगदान है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि पिछले कुछ दशकों से ज्‍यों-ज्‍यों महिला साक्षरता में वृद्धि होती आई है, भारत विकास के पक्ष पर अग्रसर हुआ है। इसने न केवल मानव संसाधन के अवसर में वृद्धि की है, बल्‍कि घर के आँगन से ऑफिस के कैरीडोर के कामकाज और वातावरण में भी बदलाव आया है।
महिलाओं के शिक्षित होने से न केवल बालिका-शिक्षा को बढ़ावा मिला, बल्‍कि बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य और सर्वांगीण विकास में भी तेजी आई है। महिला साक्षरता से एक बात और सामने आई है कि इससे शिशु मृत्‍यु दर में गिरावट आ रही है और जनसंख्‍या नियंत्रण को भी बढ़ावा मिल रहा है। हालाँकि इसमें और प्रगति की गुंजाइश है। स्‍त्री-पुरुष समानता के लिए जागरूकता जरूरी है।
नि:संदेह अंग्रेजों का शासन बहुत बुरा था, लेकिन महिलाओं की स्‍थिति में जो मौलिक बदलाव आए वो इसी जमाने में जाए। कम से कम प्राचीन भारतीय संस्कृति में तो महिला की इज्‍जत थी ही। मुगलों और उससे पहले आक्रमणकारी लुटेरों के शासन के साथ ही उनकी दशा में गिरावट आई।
पिछले कुछ दशकों से ज्‍यों-ज्‍यों महिला साक्षरता में वृद्धि होती आई है, भारत विकास के पक्ष पर अग्रसर हुआ है। इसने न केवल मानव संसाधन के अवसर में वृद्धि की है, बल्‍कि घर के आँगन से ऑफिस के कैरीडोर के कामकाज और वातावरण में भी बदलाव आया है।

ब्रिटिश काल में राजाराम मोहन राय और ईश्‍वरचंद विद्यासागर ने महिलाओं की उन्‍नति के लिए आवाज उठाई। उनका साथ पूरे देश में देने के लिए महाराष्‍ट्र से ज्‍योतिबा फुले और डॉ. आम्बेडकर आगे बढ़े तो वहीं दक्षिण में पेरियार ने इसमें पहल की। भारत में पुनर्निर्माण का दौर चल रहा था। ऐसे में भला महिलाओं के पिछड़े होने पर यह कैसे संभव था।

राजा राममोहन राय ने मैकाले की शिक्षा नीति का विरोध किया तो दूसरी ओर महिलाओं की उन्‍नति के लिए आवाज बुलंद भी की। ब्रह्म समाज और उसके बाद आर्य समाज ने भी महिलाओं की उन्‍नति के रास्‍ते खोले। महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया गया। हालाँकि इसमें तेजी आजादी के बाद ही आई। सरकार ने औरतों की शिक्षा के लिए कई नीतियाँ तैयार की, जिसके कारण महिला साक्षरता में जबर्दस्‍त उछाल आया। आजादी के केवल तीन दशक बाद इसमें पुरुषों की साक्षरता दर की अपेक्षा तेज गति से वृद्धि हुई।

सन
1971 में जहाँ केवल 22 फीसदी महिलाएँ साक्षर थीं, वहीं सन 2001 तक यह 54.16 फीसदी हो गया। इस दौरान महिला साक्षरता दर में 14.87 फीसदी की वृद्धि हुई और वहीं पुरुष साक्षरता दर में वृद्धि 11.72 फीसदी ही रही। लेकिन इस क्षेत्र में और तेजी की दरकार है। भारत के दूरदराज के इलाकों की बात तो दूर बड़े शहरों में भी लड़कियों को उच्‍चतर शिक्षा के लिए कड़ी मशक्‍कत करनी पड़ती है। जहाँ 2001 की जनसंख्‍या में पुरुषों की साक्षरता 75 फीसदी थी, वहीं महिला साक्षरता महज 54 फीसदी थी। वैसे साक्षरता दर में आई तेजी से उम्‍मीद की जा सकती है कि आने वालों दिनों में इसमें और तेजी आएगी।

बड़ी कठिन डगर संसद की

करीब एक दशक से संसद की एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात हो रही है, लेकिन इसके पक्ष में आज तक कोई बिल भी नहीं लाया जा सका हैं। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों को मिलाकर भी महिलाओं का प्रतिनिधित्‍व दस फीसदी भी नहीं है।

विश्‍व के कई देशों ने माना है कि राष्‍ट्र के विकास के जमीन से जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्‍हें महिलाएँ बेहतर तरीके से समझती हैं और उनके समाधान के उपाय भी उनके पास हैं। यूनिसेफ के अनुसार राजनीति में सक्रिय महिलाएँ सभी स्‍तरों पर बच्‍चों के हितों की विशेष रूप से हिमायती होती हैं।

आँकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक से सभी देशों की संसदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्‍व लगातार बढ़ रहा है, लेकिन वहीं भारत में इस संबंध में कोई प्रगति नहीं दिख रही है। वोट के आधार पर जातिगत सीटों का निर्धारण तो हुआ हैं, लेकिन कोई राजनीतिक पार्टी अभी तक लोकसभा में दलगत आधार पर महिलाओं के लिए पुख्ता आवाज नहीं उठा सकी है। हालाँकि लगभग सभी राजनीतिक दलों में महिलाओं के वोट पाने के लिए महिला प्रकोष्‍ठ मौजूद है।

करीब एक दशक से संसद की एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात हो रही है, लेकिन इसके पक्ष में आज तक कोई बिल भी नहीं लाया जा सका हैं। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों को मिलाकर भी महिलाओं का प्रतिनिधित्‍व दस फीसदी भी नहीं है।

वैसे महिलाएँ अपने दम पर आगे आ रही हैं लेकिन विधायिका (राज्‍य और केंद्र दोनों) में उनकी पहुँच कम है। दूसरी ओर सरकार ने पंचायत स्‍तर पर सीटों का बँटवारा किया है, लेकिन यहाँ भी कुछ को छोड़कर महिलाओं के नाम पर पुरुष ही काम करते हैं। राष्‍ट्र स्‍तर पर बात करें तो कमोबेश पूरी दुनिया में यही स्‍थिति है। आज भी महज 17 फीसदी महिलाएँ ही संसद में प्रतिनिधित्व कर रही हैं।

प्राथमिक से लेकर बड़े स्तर तक फैसले लेने के मामले में महिलाओं की योग्‍यता को सामाजिक नजरिए से कम आँका जाता है। महिलाओं पर काम के अधिक बोझ (घर-परिवार से लेकर समाज-व्‍यवसाय तक) के साथ-साथ लैंगिक भेदभाव के अनेक दुष्‍परिणाम राजनीति में उनकी भागीदारी में रोड़े अटकाते रहते हैं।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक संसद और विधान मंडलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने के बाद भी राजनीति में स्‍त्री-पुरुष समानता लक्ष्‍य कोसों दूर है। दुनिया भर में इस समय विभिन्‍न देशों की संसदों में महिला सांसदों का अनुपात बढ़ने कीवार्षिक दर करीब 0.5 प्रतिशत है। इस दर से राजनीति में समानता का लक्ष्‍य 2068 तक भी हासिल नहीं हो सकेगा।

भारत में आज भी महिला अधिकारों से जुड़े कई ऐसे मसले हैं, जिन पर सही और असरदार नीतियाँ नहीं बनाई गई हैं और जो कानून बने भी हैं, उनमें से कई के पालन होने और उनके साबित होने में काफी खामियाँ हैं। जैसे बलात्‍कार के मामलों की जाँच प्रक्रिया और उसकी सजा पर कई बार केवल चर्चा हो सकी है। घरेलू हिंसा, आरक्षण, लैंगिक भेदभाव, अवसर जैसे कई मसले हैं, जिन पर गौर करने की जरूरत है।

पुरुष सांसदों में पौरुष की कमी
देश की आबादी में पचास करोड़ तक की हिस्सेदारी के बाद भी संसद में सिर्फ एक तिहाई सीटों की माँग आज तक रंग नहीं ला पाई है। भारत में पंचायत और ग्राम सभा स्‍तरों पर तो इसमें कुछ प्रगति आई है, लेकिन राज्‍यों और केंद्र स्‍तर पर इस दिशा में कदम बढ़ाने की हिम्‍मत सांसद नहीं कर पाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण सांसदों, राजनेताओं और पार्टियों की महत्‍वाकांक्षा है।

वर्तमान में विश्‍व में कुल संसदीय सीटों में से केवल 17.7 फीसदी सीटों पर महिलाएँ काबिज हैं। दोनों सदनों को मिलाकर जहाँ पुरुष सांसदों की संख्‍या 36,294 है, वहीं महिला सांसद 7,793 ही है। दूसरी ओर निचले सदन में यह आँकड़ा 30,404 और 6,615 और उच्‍च सदन में 5,890 और 1,178 का है।

अगर पूरे विश्‍व में महिला सांसदों के प्रतिनिधित्‍व के बारे में पड़ताल करें तो पता चलता है कि इस मामले में भारत पिछड़े देशों से भी पिछड़ा है। विश्‍व के 130 से अधिक देशों की संसद में भारत का स्‍थान 104वाँ है। गौर करने वाली बात यह है कि नेपाल और बांग्‍लादेश भी इससे ऊपर हैं। इससे अलग रवांडा और स्‍वीडन में जहाँ महिलाओं का संसद में प्रतिनिधित्‍व 48 फीसदी है, वहीं भारत में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्‍व 8.2 फीसदी (545 में 45 महिला सांसद) और राज्‍यसभा में 10.7 फीसदी (242 में 26 महिला सांसद) हैं।

सन 1999 में अन्‍तरसंसदीय संघ ने 65 देशों में 187 महिला सांसदों का एक विस्‍तृत सर्वेक्षण करवाया था, जिसमें पता चला था कि महिलाओं की प्राथमिकता पुरुषों से अलग होती है। इनमें से 90 फीसदी का मानना था कि महिलाओं की कार्यपालिका में भागीदारी होने से व्‍यापक बदलाव आएगा।

सर्वेक्षण में यह बात आई कि महिलाओं के लिए राजनीति सामाजिक कार्य करने का माध्‍यम होती है। इसके साथ ही महिलाओं की प्रगति के रास्‍ते भी खुले क्‍योंकि वे अपने आपको हर महिला का प्रतिनिधि समझती है। इस मामले में उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता है।

इच्छाशक्ति की कमी-
वैसे राजनीति में महिलाओं के पीछे होने में कुछ उनकी अरुचि और लोगों में मिथ भी देखने का मिलता है। राजनीति में महिलाओं के कम आने के पीछे सामाजिक और निजी जिम्‍मेदारी को दोहरा बोझ उनके ऊपर होना भी है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर काम का बोझ ज्‍यादा होता है। इसके अलावा कार्य करने के साथ भारतीय रूढ़ियों को ढोने की भी प्रबल कामना के कारण मुखर होकर माँगे करना मतदाताओं को नहीं लुभाता है, जिससे चुनाव जीतने में उन्‍हें मुश्‍किल आती है।

दाँव-पेंच की राजनीति महिलाओं को रास नहीं आती है और वे अक्‍सर राजनीति छोड़ देती हैं। ऐसी धारणा होती है कि महिलाएँ बड़े निर्णय नहीं ले सकती हैं और बड़े पद ग्रहण करने में उन्‍हें दिक्‍कत आती है। लेकिन इंदिरा गाँधी ने भारत की प्रधानमंत्री होते हुए पोखरण में परमाणु परीक्षण किया, जो बड़ा कारनामा था। इसके अलावा विश्‍व में 13 महिलाएँ रक्षा मंत्रालय के पद भी संभाल चुकी हैं और 9 वित्तमंत्री भी रह चुकी हैं।

बहरहाल उनका मनोबल कहीं कम नहीं है। अवसर की उपलब्‍धता और मानसिकता के बदलाव के लिए महिलाओं का विधायिका में आधा प्रतिनिधित्‍व होना जरूरी है और इसके लिए समाज के हर वर्ग के साथ ही सांसदों को कारगर नीति बनाने का पौरुष भी दिखाना होगा।

गर्म हुआ धरती का एयर कंडीशनर


जलवायु परिवर्तन और ग्रीन हाउस गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन से आर्कटिक का तापमान दो हजार वर्षो में सर्वाधिक हो गया है। गर्मी के मौसम में यहां तापमान में 1.66 सेल्सियस डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। उत्तरी ध्रुव के तापमान में यह वृद्धि पिछले एक दशक में सबसे अधिक है। सिलसिला यूं ही चलता रहा तो प्राकृतिक एयर कंडीशनर माना जाने वाला आर्कटिक अगले चार सदी में धरती को ठंडा बनाने की अपनी क्षमता खो देगा।

पृथ्वी का चक्र प्रभावित : अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के दल ने पाया है कि कार्बन डाई ऑक्साइड और अन्य गैसों के उत्सर्जन से 21 हजार वर्षो का वह चक्र प्रभावित हुआ है, जिसमें सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने के दौरान पृथ्वी की कक्षा में क्रमिक बदलाव होता है। इस शोध की रिपोर्ट हाल ही ‘साइंस’ जर्नल में प्रकाशित की गई है।

औसत तापमान बढ़ा : नार्दन एरिजोना यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉरेल कॉफमैन के मुताबिक, उत्तरी ध्रुव के ठंडा होने की वजह पृथ्वी की कक्षा में क्रमिक परिवर्तन थी। इस बदलाव से आर्कटिक धीरे-धीरे सूर्य से दूर होता गया और वहां ठंडक बढ़ती गई। यह क्रम 20वीं और 21वीं सदी तक चलना चाहिए था, लेकिन शोध में ऐसा न होने की पुष्टि हुई है। इस क्षेत्र में गर्मी के दौरान औसत तापमान में 1.66 सेल्सियस की वृद्धि हुई है।

औधोगिक क्रांति के नुकसान : आर्कटिक के ठंडा होने का क्रम करीब 7000 वर्ष पहले शुरू हुआ था और 16वीं से 19वीं सदी के मध्य के ‘लिटिल आइस एज’ में वहां का तापमान न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया था। लेकिन औद्योगिक क्रांति शुरू होने के साथ आर्कटिक पर इसका प्रतिकूल असर दिखना शुरू हो गया। इस क्षेत्र में गर्मी के मौसम में समुद्र की बर्फ पिघलने लगती है और समुद्र के पानी का रंग गहरा हो जाता है। इससे सूर्य की किरणों परावर्तित होने के बजाय सोख ली जाती हैं। फलस्वरूप गर्मी और बढ़ जाती है।

धरती का थर्मामीटर : आर्कटिक पर गर्मी से भू-भाग के ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं। इससे समुद्र के जलस्तर में वृद्धि हो रही है। शोध से जुड़े यूएस नेशनल सेंटर फॉर एटमास्फियरिक रिसर्च के वैज्ञानिक डेविड स्नाइडर ने बताया, ‘आर्कटिक ऐसी जगह है, जिसे देखकर आप जलवायु में हो रहे बदलाव का सबसे पहले पता लगा सकते हैं और इसका धरती के शेष क्षेत्रों पर क्या असर पड़ेगा इसका सहज अनुमान लगा सकते हैं।’

Thursday, March 20, 2008

वक्‍त कम कैसे हो गया

होली आ गई। एक पोल में अभी तक 41 फीसदी लोगों ने माना है कि होली के उत्‍साह में कमी आ गई। हाँ, वक्‍त और समय नहीं है किसी के पास... लोग बाग यहीं दलील देते हैं। मुझे तो समझ में नहीं आता भईया। पहले भी 24 घंटे ही होते होंगे ना। या दो-चार घंटे और होते थे। मुझे जो बताया गया है, उसके हिसाब से हमेशा से 24 घंटे ही रहे हैं। फिर वक्‍त कम कैसे हो गया ?

अजमेर में नौकरी करने के दौरान मनोविज्ञानी और समाजशास्‍‍त्री उमा जोशी अक्‍सर अपनी बातों से मुझे प्रभावित करती थीं। वो हमेशा बजटिंग ऑफ टाइम पर जोर देती थीं। कहती थीं कुछ लोगों के पास घंटे अधिक होते हैं, क्‍‍योंकि उन्‍‍हें समय का ठीक उपयोग आता है।

आमतौर पर लोग अपनी जरूरतों को बजटिंग ऑफ टाइम का हिस्‍‍सा नहीं मानते हैं, जिससे उन्हें ऑफिस और अपने व्यक्तिगत काम के बीच तालमेल बिठाने में श्‍ मुश्‍किल आती है। उमा जी का कहना था कि यदि हम अपनी जरूरतों और गैर जरूरी कामों का बँटवारा कर लें तो हमारे पास भी दो-चार घंटे ज्यादा होंगे।

उमा जोशी का जीवन के प्रति दृष्‍टिकोण बहुत ही सकारात्मक है। एक बार फैशन में बदलाव के सिलसिले में उनका मत जानने के लिए फोन लगाया। उन्होंने कहा कि बदलते ट्रेंड के साथ चलन में आने वाले पहनावे को जो लड़कियाँ अडाप्ट कर लेती हैं, वो बदलाव के लिए हमेशा तैयार होती हैं। इससे उन्हें आगे के जीवन में बहुत मुश्किलों से निपटने में आसानी रहता है।

उमाजी की बात ने मुझ पर गहरा असर डाला। तात्कालिक तौर पर जो स्टोरी निगेटिव भी वो फैशन के पॉजिटिव आस्पेक्ट में लिखी गई। उनकी इन दोनों बातों में मुझे जावन के उजले पक्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा दी।