Saturday, September 26, 2009

वो आखिरी चिट्ठी


वो आखिरी चिट्ठी भी सिराहने रख दी
तुमसे कहने वाली ढेर सारी बातें दबाकर।
कभी खूंटी पर रखी पुरानी यादों को खोलना
बीते लम्हों के पत्ते आज भी हरे मिलेंगे।

चढ़ती-उतरती सीढ़ियों पर
वो परछाइयां आज भी चिपकी हैं।
पीछे से उठती हवाओं से पूछना
उसकी किताबों में वो दो फूल ताजा हैं।

वक्त के झोंके धुल नहीं पाएं है
कभी गर्मी, कभी सर्दी बनकर सताते है।
वक्त बेवक्त आते मानसून में
बूंदों की सौंधी खूशबू आज भी जिंदा है।

वो जो चारमीनार के नीचे मोती खरीदे थे
उनका रंग पीला तो नहीं हुआ
हां उसकी लड़ियां जो तुमने गुथीं थी
टूट गईं हैं, तुम आना तो फिर गुथ देना।