Saturday, September 26, 2009

वो आखिरी चिट्ठी


वो आखिरी चिट्ठी भी सिराहने रख दी
तुमसे कहने वाली ढेर सारी बातें दबाकर।
कभी खूंटी पर रखी पुरानी यादों को खोलना
बीते लम्हों के पत्ते आज भी हरे मिलेंगे।

चढ़ती-उतरती सीढ़ियों पर
वो परछाइयां आज भी चिपकी हैं।
पीछे से उठती हवाओं से पूछना
उसकी किताबों में वो दो फूल ताजा हैं।

वक्त के झोंके धुल नहीं पाएं है
कभी गर्मी, कभी सर्दी बनकर सताते है।
वक्त बेवक्त आते मानसून में
बूंदों की सौंधी खूशबू आज भी जिंदा है।

वो जो चारमीनार के नीचे मोती खरीदे थे
उनका रंग पीला तो नहीं हुआ
हां उसकी लड़ियां जो तुमने गुथीं थी
टूट गईं हैं, तुम आना तो फिर गुथ देना।

6 comments:

Chandan Kumar Jha said...

बहुत ही भावपूर्ण रचना ।


Please remove word verification then it will be easy to comment.


गुलमोहर का फूल

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर रचना. स्वागत है.शब्दपुष्टिकरण हटा लें तो सुविधा होगी.

शशांक शुक्ला said...

अच्छा लिखा है, कविता की कुछ खास समझ तो नहीं है पर अच्छी लगी कविता

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

purani yad taja kar gai aapki rachna.narayan narayan

Anonymous said...

Apaka swagat hai. Achchi rachanaprastut ki hai.

P.K.Mishra said...

Dear Ankit. Again it is sweeter than honney. Your kines r full of emotions & desire. Keep it up.

P.K.Mishra (Banarasi)