Wednesday, February 3, 2010

विश्राम है, विराम नहीं
















विराम दिया था
इतने दिन तक
तुमको, साथी मेरे

अंतस में तुम जगह बनाकर
लेटे थे

आज उभारों को मैनें
महसूस किया है
दो-चार स्याह, जो
मिलकर साथ
इधर गुजरे

मन नाचा मेरा
जान, हुआ पुलकित
विश्राम अभी है ये
विराम नहीं।

2 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बहुत खूब...आपकी कविताएं सहज संवाद स्थापित करती हैं।

अंकित श्रीवास्‍तव said...

shukriya devendra jee